शेयर मार्केट का एक सीधा सा फंडा है कि जब बाजार में गिरावट हो तो खरीदारी करो। इस फंडे के जरिए अब Masayoshi Son ने तकनीकी कंपनियों में निवेश करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी प्राइवेट कंपनी सॉफ्टबैंक ग्रुप कॉरपोरेशन (SoftBank Group Corp.) में अपना दबदबा बढ़ा लिया है। ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक बाजार की गिरावट के बीच सोन ने सॉफ्टबैक के शेयरों की खरीदारी कर अपनी हिस्सेदारी को एक तिहाई से अधिक कर लिया है। सॉफ्टबैंक के फाउंडर सोन ने पिछले दो महीने में 9 करोड़ आउटस्टैंडिंग शेयरों का आक्रामक तरीके से बॉयबैक किया। सितंबर 2022 तिमाही के आखिरी में उनकी हिस्सेदारी SoftBank में 32.2 फीसदी थी जो अब 34.2 फीसदी पर है। मार्च 2019 में सोन की सॉफ्टबैंक में 26.7 फीसदी हिस्सेदारी थी। Softbank में सोन की हिस्सेदारी बढ़ने की खबर सामने आने के बाद इसके शेयर 1.9 फीसदी उछल गए।
मिल गई Softbank में वीटो करने की ताकत
सॉफ्टबैंक जापान की कंपनी है और जापान के कानून के तहत एक-तिहाई से अधिक हिस्सेदारी होने के चलते सोन को संपत्तियों की बिक्री, बॉयबैक, विलय और कॉरपोरेट बॉयलॉज पर अधिक नियंत्रण हो गया। सोन अब शेयरहोल्डर्स के किसी भी विशेष प्रस्ताव के मामले में वीटो करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। इसके अलावा सोन अब उस स्थिति के करीब पहुंच गए हैं, जब वह इस पब्लिक लिस्टेड कंपनी को प्राइवेट बना सकते हैं यानी अकेले इसके मालिक बन सकते हैं।
बता दें कि सोन सॉफ्टबैंक को प्राइवेट बनाने की चर्चा कंपनी में अंदर ही अंदर कई बार कर चुके हैं। जापान के नियमों के मुताबिक अगर सोन के पास सॉफ्टबैंक के 66 फीसदी शेयर आ जाते हैं तो वह बाकी शेयरों के लिए बोली मंगा सकते हैं और कुछ स्थितियों में तो इसके लिए प्रीमियम भी नहीं देना होगा।
प्राइवेट करने को लेकर अलग-अलग राय
सोन की आक्रामक खरीदारी के चलते यह बहस चल रही है कि क्या सॉफ्टबैंक प्राइवेट हो जाएगी और यह कितना सही रहेगा। इसे लेकर एसएमबीसी निक्को सिक्योरिटीज के सीनियर एनालिस्ट सतोरु किकुचि का कहना है कि इसकी एक वजह भी नहीं गिनाई जा सकती है कि सॉफ्टबैंक को क्यों लिस्ट नहीं होना चाहिए। सॉफ्टबैंक बिना लिस्ट हुए भी जरूरत पड़ने पर फंड जुटा सकती है। इसके लिए उसे प्रतिबंधों और लागत से जुड़े नियमों को भी नहीं मानना होगा।
किकुचि के मुताबिक मौजूदा कारोबारी मॉडल के हिसाब से यह सही नहीं है। सॉफ्टबैंक को प्राइवेट किए जाने के समर्थकों का तर्क यह है कि इससे निवेश या स्टॉफ से जुड़े किसी भी फैसले के लिए नियामक या शेयरहोल्डर्स से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी।