इस साल आई जबर्दस्त तेजी की वजह से सोना चर्चा में है। 21 अक्टूबर को 5 फीसदी की गिरावट के बावजूद गोल्ड ने निवेशकों को मालामाल किया है। सवाल है कि आखिर गोल्ड में इतनी तेजी की क्या वजह है? इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमें ग्लोबल इकोनॉमी में गोल्ड की भूमिका को समझना होगा।
1944 का ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट
सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद 1944 में ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट हुआ। तब अमेरिकी डॉलर में दुनिया के दूसरे देशों की करेंसीज की कीमत तय करने पर सहमति बनी। डॉलर की कीमत Gold पर आधारित थी। 35 डॉलर एक औंस सोने के बराबर था। इस व्यवस्था से ग्लोबल इकोनॉमी को तब स्थिरता मिली, जब उसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। लेकिन, अमेरिकी इकोनॉमी का आकार बढ़ने पर सरकार ने ज्यादा डॉलर छापे। एक समय ऐसा आया जब कुल डॉलर का मूल्य गोल्ड रिजर्व से ज्यादा हो गया।
1960 के दशक में एक कमोडिटी के रूप में उभरा गोल्ड
1960 का दशक आते-आते इस असंतुलन की अनदेखी करना मुश्किल हो गया। 1971 में अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने एक बड़ा कदम उठाया। उन्होंने डॉलर को गोल्ड में बदलने की सुविधा बंद कर दी, जिससे ब्रेटन वुड्स सिस्टम खत्म हो गया। इससे मॉनेटरी सिस्टम में गोल्ड की तय भूमिका खत्म हो गई। इसके बाद गोल्ड एक कमोडिटी बनकर रह गया। इसकी कीमतों पर मार्केट फोर्सेज का असर पड़ना शुरू हो गया। लेकिन, निवेश के सुरक्षित विकल्प को लेकर इसकी भूमिका बनी रही।
केंद्रीय बैंकों ने समझा गोल्ड का महत्व
जैसे-जैसे डॉलर कमजोर होता गया और इनफ्लेशन बढ़ता गया, वैसे-वैसे गोल्ड की अपील बढ़ती गई। जब कभी डॉलर में बड़ी कमजोरी आई या इनफ्लेशन में उछाल आया, गोल्ड निवेश के भरोसेमंद जरिया के रूप में सामने आता रहा। क्राइसिस के समय भी इसकी चमक बनी रही। इससे यह माना गया कि जब सबकुछ अनिश्चित दिख रहा तो तब भी गोल्ड में वेल्थ की वैल्यू घटने से बचाने की क्षमता है। इसके बाद दुनिया के केंद्रीय बैंकों ने गोल्ड खरीदना शुरू कर दिया। इसका मकसद विदेशी मुद्रा भंडार का डायवर्सिफिकेशन था।
गोल्ड में तेजी की बड़ी वजहें
बीते कुछ सालों में गोल्ड और अमेरिकी डॉलर के बीच दिलचस्प संबंध देखने को मिला है। जब डॉलर में कमजोरी आती है तो गोल्ड की चमक बढ़ती है। इससे यह दूसरी करेंसीज में इनवेस्ट करने वाले इनवेस्टर्स के लिए और अट्रैक्टिव हो जाता है। बॉन्ड्स की रियल यील्ड ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई। जब रियल यील्ड घट जाती है तो गोल्ड की अपील बढ़ जाती है। जब हम साल 2025 के अंत के करीब है, गोल्ड 4000 डॉलर प्रति औंस से ऊपर है। गोल्ड की तेजी में डॉलर में कमजोरी, बॉन्ड्स की कम रियल यील्ड और सेंट्रल बैंकों के बीच गोल्ड की ज्यादा डिमांड का हाथ है। इसके अलावा जियोपॉलिटिकल टेंशन का असर भी इसमें शामिल है।
इकोनॉमी में गोल्ड की बढ़ती भूमिका
गोल्ड में तेजी न सिर्फ इनवेस्टर्स के लिए अहम है बल्कि इसका आर्थिक महत्व भी है। उदाहरण के लिए भारत में आरबीआई के रिजर्व में डॉलर के अलावा गोल्ड भी है। जब गोल्ड में तेजी आती है तो आरबीआई के डॉलर रिजर्व की वैल्यू बढ़ जाती है। इससे इंडिया की फाइनेंशियल पोजीशन मजबूत होती है। गोल्ड का असर भारत में कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (CPI) पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए सितंबर 2025 में गोल्ड की ज्यादा कीमतों की वजह से इंडिया के कोर इनप्लेशन में मामूली उछाल देखने को मिला, जबकि फूड की कीमतों में गिरावट आई। इससे पता चलता है कि गोल्ड की भूमिका इकोनॉमी में कितनी ज्यादा है।
गोल्ड में तेजी जारी रहने की उम्मीद
गोल्ड में तेजी जारी रहने की उम्मीद है। इसकी कई वजहें हैं। रियल यील्ड लगातार कम बनी हुई है। सेंट्रल बैंक के बीच गोल्ड की डिमांड बनी हुई है। लेकिन, इतिहास यह बताता है कि ऐसी तेजी के बाद गोल्ड दोबारा नई ऊंचाई पर पहुंचने से पहले कंसॉलिडेशन फेज में रहता है। इसलिए गोल्ड में तेजी जारी रहने की संभावना है, लेकिन इनवेस्टर्स को इसमें उतारचढ़ाव के लिए तैयार रहना चाहिए।
एक सीमा से ज्यादा निवेश सही नहीं
कई इनवेस्टर्स इनफ्लेशन से बचाव, करेंसी में कमजोरी और ग्लोबल इकोनॉमी में अनिश्चितता को देखते हुए गोल्ड में निवेश कर रहे हैं। लेकिन, गोल्ड में बहुत ज्यादा निवेश से आपके पोर्टफोलियो पर इसकी कीमतों में तेजी या कमजोरी का असर पढ़ना शुरू हो जता है। ऐसे में बॉन्ड बड़ा रोल निभाता है। अनिश्चित समय में तो गोल्ड का प्रदर्शन अच्छा रहता है लेकिन, जब सबकुछ ठीक चल रहा होता है तो क्या होता है? बॉन्ड्स पोर्टफोलियो में स्टैबिलिटी लाता है। साथ ही इंटरेस्ट के रूप में इससे रेगुलर इनकम होती है। यह फायदा गोल्ड में नहीं है। ऐसे इनवेस्टर्स जिन्हें रेगुलर कैश की जरूरत पड़ती है, उनके डायवर्सिफायड पोर्टफोलियो में बॉन्ड्स का होना जरूरी है।