Jitiya vrat 2025: इस व्रत को हिंदू धर्म के सबसे कठिन व्रतों में से एक माना जाता है। यह हर साल अश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन किया जाता है। इस साल ये व्रत आज यानी रविवार, 14 सितंबर के दिन किया जा रहा है। जीतिया व्रत से जुड़ी कई खास परंपराएं हैं। इनमें जिउतिया धागा पहनने और भगवान जिमूतवाहन की कथा सुनने का विशेष महत्व है। जीवित पुत्रिका के दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के बाद ये व्रत कथा भी सुननी चाहिए। आइए जानें इनके बारे में
जितिया धागा एक पवित्र, रंगीन धागा है जिसे महिलाएं भगवान जीमूतवाहन की पूजा के बाद पहनती हैं। जीवित्पुत्रिका व्रत के दौरान की जाती है। जीवित्पुत्रिका व्रत में महिलाएं भगवान जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। इसमें जीतिया लॉकेट पिरोया हुआ धागा भी अर्पित किया जाता है। पूजा के बाद इसे गले में धारण किया जाता है। यह धागा आमतौर पर पूरे वर्ष के लिए रखा जाता है और अगले जितिया व्रत के दौरान बदल दिया जाता है।
यह गंधर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन। जीमूतवाहन बहुत ही पवित्र आत्मा और परोपकारी थे। उन्हें राज पाट सेबिल्कुल भी लगाव न था। मगर, वृद्ध पिता एक दिन जीमूतवाहन को राजपाट सौंपकर वानप्रस्थ के लिए प्रस्थान करने लगे। लेकिन जीमूतवाहन ने सारा राजपाट अपने भाइयों को सौंपते हुए स्वयं वन में रहकर पिता की सेवा करने का फैसला किया। एक दिन वह वन में घूम रहे थे। एक जगह उन्होंने एक वृद्धा को रोते हुए देखा। जीमूतवाहन ने उनके रोने का कारण पूछा और उन्हें भरोसा दिलाया कि वह उनका दुख दूर कर देंगे। तब वृद्धा ने बताया, ‘मैं नागवंश की स्त्री हूं। मेरा एक ही पुत्र है। पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरुड़ को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंपते हैं। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। आज मेरेपुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा कि डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर उस-शिला पर लेट जाऊंगा, जिससे गरुड़ मुझे खा जाए और तुम्हारा पुत्र बच जाए।’ इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। अपने समय पर गरुड़ आए और लाल कपड़े में ढके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए। गरुड़ ने अपनी चोंक से जीमूतवाहन के शरीर पर प्रहार किया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। यह देखकर गरुड़ बड़े आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं। आप मुझे खाकर भूख शांत करें। गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें स्वयं पर बहुत पछतावा हुआ। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ ने कहा- मैं तुम्हारे त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें ठीक कर देता हूं। तुम मुझसे कोई वरदान मांगो। राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे पक्षी राज अगर आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें। आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें। गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। गरूड़ ने कहा- हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी। तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई।
इस व्रत से भगवान श्री कृष्ण की कथा भी जुड़ी है। महाभारत युद्ध में अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज थे और उनके अंदर बदले की आग जल रही थी। वह पांडवो के शिविर में घुस गए और सोते हुए पांच लोगों को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संतानें थीं। इसके बाद अर्जुन ने उन्हें बंदी बना लिया और दिव्य मणि छीन ली। अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल किया, इसे निष्फल करना नामुमकिन था। लेकिन उत्तरा की संतान का जन्म लेना अत्यंत जरूरी था। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना। तभी से इस व्रत को करने की परंपरा चली आ रही है।