Sarhul Festival: झारखंड में सरहुल पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है। यह पर्व हर साल चैत्र मास में आता है। सरहुल पर्व आदिवासी समुदाय का प्रमुख त्योहार है, जिसमें प्रकृति की पूजा की जाती है। आदिवासी समुदाय के लिए यह सिर्फ एक त्योहार नहीं है, बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान, प्रकृति के प्रति सम्मान और परंपराओं का उदाहरण है। झारखंड के गुमला जिले में भी इन दिनों सरहुल पर्व धूमधाम और श्रद्धा के साथ मनाया जा रहा है। सरहुल की पूजा एक खास तरह से की जाती है। इसको करने के लिए एक खास परंपरा निभाई जाती है। जिसे साइंटिक तौर पर भी सोचने को मजबूर कर देता है।
झारखंड के गुमला जिले में सरहुल पर्व के दौरान घड़े से बारिश की भविष्यवाणी की जाती है। यह भविष्यवाणी अक्सर सही साबित होती है। आइए जानते हैं इस कैसे होता है भविष्यवाणी
कैसे मनाया जाता है सरहुल पर्व
हर साल गुमला जिले में सरहुल पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन सुबह-सुबह आदिवासी समाज के पाहन दो नए मिट्टी के घड़े नदी या कुएं से लाते हैं। इन घड़ों को पूरी श्रद्धा और परंपरा के साथ सरना स्थल पर रखा जाता है। इसके बाद इन घड़ों में अरवा चावल और सरई के फूल डाले जाते हैं। फिर इन घड़ों को धागे और सिंदूर से सजाया जाता है। यह पूरी प्रक्रिया पारंपरिक और बड़े आदर से की जाती है। इन्हीं घड़ों से बाद में होने वाले समय में बारिश के बारे में पता चलता है।
घड़े से की जाती है बारिश की भविष्यवाणी
सरहुल पर्व की पूजा खत्म होने के बाद घड़े के पानी को चेक किया जाता है, जिससे पता चलता है कि आने वाले समय में कैसी बारिश होगी। अगर पूजा के बाद घड़े का पानी अपनी मात्रा में बना रहता है, तो यह अच्छे बारिश का संकेत माना जाता है। वहीं अगर पानी घट जाता है, तो यह चिंता की बात होती है और माना जाता है कि वर्षा सामान्य से कम होगी। पूजा के बाद इस "राइस पानी" को फिर प्रसाद के रूप में सभी घरों में बांटा जाता है। इसके साथ ही गांववासियों के लिए सुख-समृद्धि और अच्छी फसल की कामना करते हैं।
सदियों से चली आ रही परंपरा
पाहन करमा बैगा ने लोकल 18 से बात करते हुए कहा, "यह रिवाज न सिर्फ आध्यात्मिक है, बल्कि यह प्रकृति के साथ गहरे संबंध को भी दर्शाता है। आदिवासी समाज का मानना है कि राइस पानी को फसल के बीजों में मिलाकर बोने से अच्छी उपज होती है और यह परंपरा सदियों से चली आ रही है।" पूजा खत्म होने के बाद आदिवासी समुदाय के लोग सरना स्थल से पारंपरिक आदिवासी कपड़ों में नाचते-गाते जुलूस निकलता है, जिसमें ढोल, मांदर और नगाड़ों की आवाज से पूरा माहौल गूंज उठता है। यह जुलूस गुमला में वर्षों से एक परंपरा बन चुका है।
सरहुल त्योहार पर्यावरण की रक्षा का मैसेज भी देता है। इस दिन लोग नदी, तालाब, जंगल और धरती माता की पूजा करते हैं और उनके संरक्षण का वादा करते हैं।