रुचि सोया ने पतंजलि आयुर्वेद को खरीदने का प्लान बनाया है। यह ऐसा ट्रांजेक्शन है, जिसमें एक कंपनी अपने ही ग्रुप के दूसरे बिजनेस को खरीदेगी। इस डील का मतलब क्या है, इसके फायदे क्या हैं, क्या यह Slump Sale है? आइए इन सवालों के जवाब जानने की कोशिश करते हैं।
यह डील एक ही ग्रुप की दो कंपनियों के बीच होने जा रही है। रुचि सोया स्टॉक मार्केट में लिस्टेड है। पतजंलि आयुर्वेद इसकी पेरेंट कंपनी है, जो स्टॉक मार्केट में लिस्टेड नहीं है। इस डील में रुचि सोया अपने ही ग्रुप के दूसरे बिजनेस को खरीदने जा रही है। इस डील के बाद रुचि सोया का नाम पतंजलि फूड्स हो जाएगा।
Slump Sale क्या है, इसके क्या फायदे हैं?
हां, यह Slump Sale है। स्लंप सेल के कुछ फायदे हैं। दिल्ली के सीनियर चार्टर्ड अकाउंटेंट विनोद जैन ने बताया कि Slump Sale में बायर और सेलर के पास प्राइस निर्धारण के मामले में ज्यादा आजादी होती है। इसका मतलब यह है कि दोनों पक्ष आपसी बातचीत से प्राइस तय कर सकते हैं। इसके उलट Demerger में वैल्यूएशन तय करने का काम एक लीगल प्रोसेस के जरिए होता है। यह काम एक इंडिपेंडेंट वैल्यूएर करता है। इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी बोर्ड ऑफ इंडिया (IBBI) इसे एप्रूव करता है।
Slump Sale का दूसरा फायदा यह है कि इसमें डील जल्द हो जाती है। आम तौर पर इसमें एक महीने का समय लगता है। इसके उलट डीमर्जर का प्रोसेस लंबे समय तक चलता है। इसमें कई तरह के कंप्लायंस शामिल होते हैं। इसमें छह से नौ महीने का टाइम लग जाता है। कुछ मामलों में तो इससे भी ज्यादा समय लगता है। नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल इसे एप्रूव करता है।
रुचि सोया अधिग्रहण क्यों नहीं कर रही है?
इसकी वजह यह है कि अधिग्रहण में एक कंपनी दूसरी कंपनी को खरीदती है। इस डील में रुचि सोया कोई कंपनी नहीं खरीद रही है बल्कि वह एक कंपनी का बिजनेस खरीद रही है। जब कंपनी सिर्फ दूसरी कंपनी का बिजनेस खरीदना चाहती है तो इसके लिए Slum Sale फायदेमंद ऑप्शन है। दूसरा ऑप्शन डीमर्जर का है, लेकिन इसका प्रोसेस लंबा चलता है।
इस पर किस तरह टैक्स लगता है?
Slump Sale में सेलर को ट्रांजेक्शन की फेयर मार्केट वैल्यू (FMV) तय करना होता है। इस पर कैपिटल गेंस टैक्स लगता है। स्लंप सेल GST के दायरे में नहीं आता है। इसकी वजह यह है कि यह बिजनेस का ट्रांसफर है और एसेट एवं लायबिलिटी इसका एक हिस्सा होता है।
फेयर मार्केट वैल्यू क्या है?
फेयर मार्केट वैल्यू के कैलकुलेशन के दो तरीके हैं। पहले में कुछ कैपिटल एसेट्स की बुक वैल्यू और मार्केट वैल्यू को आधार बनाया जाता है। दूसरे में फिक्स्ड और कैपिटल एसेट्स के लिए बायर जो कीमत चुकाता है, उसके आधार पर कैलकुलेशन होता है।