ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की पत्नी अक्षता मूर्ति ने दिवाली के मौके पर जिस तरह के कपडे़ और गहने पहने थे, उसने भारत में लोगों का दिल जीत लिया। उनकी पसंद लोगों को खूब भा रही है। इस मौके पर उन्होंने एक साड़ी पहनी थी और गले में एक हार पहना था जिसमें गंडभेरुंड (Gandaberunda) बना हुआ है। दो सिर वाला गंडभेरुंड कर्नाटक का राजकीय चिन्ह है। अक्षता मूर्ति के पिता और इंफोसिस के फाउंडर नारायण मूर्ति और माता सुधा मूर्ति कर्नाटक में रहते हैं। अक्षता मूर्ति के नेकलेस को लेकर अब काफी चर्चा हो रही है जैसे कि इस प्रतीक का क्या मतलब है और यह इतना खास क्यों है? इसे लेकर दस अहम बातें नीचे बताई जा रही हैं।
Gandaberunda के बारे में दस खास बातें
पौराणिक कथाओं में दो सिर वाले पक्षी गंडाबेरुंडा या भेरुंडा का जिक्र आता है और इसे भगवान विष्णु का एक रूप माना जाता है।
इसका कर्नाटक के मैसूर से गहरा ऐतिहासिक संबंध है। हिंदू पौराणिक कथाओं में गंडभेरुंड का जिक्र विजयनगर साम्राज्य से मिलता जो बाद मैसूर साम्राज्य का प्रतीक चिन्ह बना। अब 500 साल से अधिक समय से दो सिर वाला यह पक्षी मैसूर के शाही इतिहास का पर्याय बन चुका है।
इतिहासकार पीवी नंजराजे उर्स के मुताबिक गंडभेरुंड का उपयोग पहली बार विजयनगर के टकसालों में सिक्कों पर एक संकेत के रूप में किया गया था जिनमें से कई सिक्के अभी भी मौजूद हैं।
गंडभेरुंड की ताकत को दिखाने के लिए कभी-कभी पंजे और चोंच पर हाथियों को ले जाते हुए भी दिखाया जाता है। इसे भगवान शिव और भगवान विष्णु की शक्ति के मिलन के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप को मारने के लिए नरसिम्हा (मानव-शेर) अवतार लिया था तो हिरण्यकश्यप की मृत्यु के बाद भी उनका क्रोध कम नहीं हुआ। इससे सभी देवता भयभीत हो गए और उन्होंने भगवान शिव से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया था। इसके बाद भगवान शिव नरसिम्ह को शांत करने के लिए शरबा (हाथी के सिर वाला शेर) के रूप में आए लेकिन जल्द ही उन्होंने खुद अपना आपा खो दिया। ऐसे में भगवान विष्णु को बड़े पंखों और विपरीत दिशा में दो सिर वाले पक्षी गंडभेरुंड का रूप लेना पड़ा जिसने शरबा को वश में करने के लिए उसे अपनी चोंच में दबा लिया।
दो सिर वाले इस पक्षी में अपार जादुई शक्ति माना जाता है और इसे देश भर के कई मंदिरों की मूर्तियों में मौजूद है।
अब ऐतिहासिक रूप से बात करें तो मैसूर के पहले राजा यदुराय वोडेयार ने अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए विजय मार्च शुरू किया। इतिहासकार पीवी नंजाराजे उर्स के मुताबिक इस यात्रा के दौरान एक तपस्वी मिले और उन्होंने राजा को एक लाल कपड़ा दिया। राजा ने उस पर पूजा की और इसे आशीर्वाद के रूप में स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने सभी उपलब्धियां हासिल की। यही लाल कपड़ा फिर मैसूर का राजध्वज बनाया गया। फिर इस ध्वज में धर्म और सत्य के सिद्धांतों को जोड़ने के लिए पौराणिक पक्षी की छवि के साथ 'सत्यमेवोधभवराम्यहम्' को जोड़ा गया।
स्वतंत्रता के बाद मैसूर ने अपने राज्य प्रतीक के रूप में ध्वज का उपयोग जारी रखा और जब यह कर्नाटक का हिस्सा बन गया तो गंडभेरुंड राज्य का आधिकारिक प्रतीक बन गया।
वर्तमान में यह कर्नाटक सरकार का आधिकारिक प्रतीक है। राज्य के दोनों सदनों के विधायक सत्र में भाग लेने के दौरान गंडभेरुंड वाले गोल्ड-कोटेड बैज पहनते हैं।
यह भारतीय सेना की 61वीं घुड़सवार सेना का प्रतीक चिन्ह है।