हर साल 1 फरवरी की तारीख नजदीक आते ही बजट की चर्चा शुरू हो जाती है। हर साल 1 फरवरी को केंद्र सरकार अगले वित्त वर्ष का अपना बजट पेश करती है। इस पर कंपनियों, टैक्सपेयर्स, आम आदमी, किसान, गृहणी सहित सबकी नजरें रहती हैं। इसके अलावा विदेशी फंडों, मल्टी नेशनल कंपनियों की भी नजरें रहती हैं। उनकी दिलचस्पी सरकार की पॉलिसी में रहता है। सरकार की पॉलिसी अनुकूल होने पर विदेशी फंड और कंपनियां निवेश करने के लिए अट्रैक्ट होती हैं।
आम आदमी की यूनियन बजट में दिलचस्पी
यूनियन बजट (Union Budget) का नाम सुनते ही कई लोगों को किसी ऐसी चीज का अहसास होता है, जो बहुत मुश्किल होती है। इसलिए आम आदमी की दिलचस्पी बजट में ज्यादा नहीं होती है। खासकर जब से जीएसटी का सिस्टम लागू हुआ है, तब से बजट में हर बार सस्ती होने वाली और महंगी होने वाली चीजों की लिस्ट का ऐलान नहीं होता है। इससे भी आम आदमी की दिलचस्पी बजट में कम हो गई है। हालांकि, टैक्सपेयर्स की दिलचस्पी इनकम टैक्स के नियमों में होने वाले बदलाव पर होती है।
यूनियन बजट और घर के बजट में फर्क
सवाल है कि क्या यूनियन बजट आपके घर के बजट से अलग होता है? अगर बजट के मकसद के हिसाब से देखा जाए तो यूनियन बजट और घर के बजट में फर्क नहीं होता है। हम अपने घर का खर्च हर महीने के बजट के हिसाब से करते हैं। अगर कोई व्यक्ति नौकरी करता है तो उसे हर महीने सैलरी मिलती है। सैलरी का कुछ हिस्सा घर के किराया या EMI पर, कुछ हिस्सा खानेपीने पर, कुछ हिस्सा पेट्रोल पर, कुछ हिस्सा बच्चों की पढ़ाई पर और कुछ हिस्सा सेविंग्स पर खर्च होता है। इसी तरह सरकार पूरे वित्त वर्ष में अपनी इनकम और खर्च का हिसाब लगाती है। फिर वह यह तय करती है कि अलग-अलग कामों पर उसे कितना पैसा खर्च करना है।
यूनियन बजट सिर्फ इनकम और खर्च का हिसाब नहीं
घर के बजट और यूनियन बजट में फर्क यह है कि सरकार का बजट सिर्फ इनकम और खर्च का हिसाब नहीं होता है। इसमें सरकार इकोनॉमी ग्रोथ बढ़ाने के उपायों, आम आदमी खासकर सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की बुनियादी जरूरतों, उद्योग जगत को बढ़ावा देने और देसी-विदेशी निवेश अट्रैक्ट के उपायों का भी ऐलान करती है। टैक्स के नियमों पर बजट का काफी फोकस होता है, क्योंकि सरकार की इनकम का सबसे ज्यादा हिस्सा टैक्स से आता है।
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सरकार बजट में कर्ज लेने का प्लान भी बताती है
यूनियन बजट में सरकार यह बताती है कि उसे नए वित्त वर्ष में टैक्स और दूसरे स्रोतों से कुल कितनी इनकम होगी। सरकार कुल कितना खर्च करेगी। फिर सरकार यह भी बताती है कि उसे कुल कितना कर्ज लेना पड़ेगा। जिस तरह आम आदमी को कई बार कर्ज लेने की जरूरत पड़ती है, उसी तरह सरकार को भी कर्ज लेना पड़ता है। फर्क यह है कि सरकार वित्त वर्ष की शुरुआत में ही अपने कर्ज का अंदाजा लगा लेती है।