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जानिए क्यों 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार का पूर्वानुमान किसी को नहीं था

1977 के लोक सभा चुनाव में जनता पार्टी को 295 और कांग्रेस को 154 सीटें मिलीं। मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने। सरकार ठीक-ठाक चल रही थी।पर जनता पार्टी के कुछ बड़े नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण मोरारजी सरकार अपना कार्य काल पूरा नहीं कर सकी

Surendra Kishoreअपडेटेड May 08, 2023 पर 6:48 AM
जानिए क्यों 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार का पूर्वानुमान किसी को नहीं था
1977 के जिस लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी की पराजय हो गई थी

सन 1977 के जिस लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी की पराजय हो गई थी, उसके बारे में पहले यह आशंका जाहिर की जा रही थी कि पता नहीं कैसे नतीजे आएंगे। चूंकि इमरजेंसी की ज्यादतियों की पृष्ठभूमि में चुनाव होने को थे, इसलिए उसकी निष्पक्षता को लेकर जयप्रकाश नारायण से लेकर जार्ज फर्नांडिस तक भी आशंकित थे। आज जब कुछ लोग सन 2024 के लोक सभा चुनाव को लेकर स्पष्ट भविष्यवाणियां कर रहे हैं तो उस पर अचरज होता है। क्या इतना आसान है सटीक चुनावी भविष्यवाणी करना ?

जनवरी, 1977 में तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि मार्च में चुनाव होंगे। चूंकि उन्होंने इमरजेंसी को पूरी तरह समाप्त किए बिना ऐसा किया था, इसलिए प्रतिपक्षी दल थोड़ी देर के लिए हतप्रभ हो गये थे। जयप्रकाश नारायण से लेकर जार्ज फर्नांडिस तक ने आशंकाएं जाहिर की थी। चुनाव की घोषणा के बाद जयप्रकाश नारायण ने प्रतिपक्षी दलों से अपील की कि वे आपस में विलय कर लें। एक दल बना लें। जब इस काम में देरी होने लगी तो जेपी ने धमकी दी कि यदि आपलोग विलय नहीं करेंगे तो हम नई पार्टी बना लेंगे। फिर तो वे लाइन पर आ गए।

चार गैर कांग्रेसी दलों यथा जनसंघ, संगठन कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय लोक दल के नेताओं ने मिलकर जनता पार्टी बना ली। बड़ौदा डायनामाइट षड्यंत्र मुकदमे के सिलसिले में देश द्रोह के आरोप में जेल में बंद जार्ज फर्नांडिस ने तो चुनाव के बहिष्कार के पक्ष में ही एक बार अपनी राय दे दी थी। हालांकि जनता पार्टी कौन कहे सोशलिस्ट घटक के भी अन्य नेता जार्ज से असहमत थे।

बाद में जनता पार्टी ने जार्ज को बिहार के मुजफ्फरपुर लोक सभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया और वे भी भारी मतों से जीते। चुनाव की घोषणा के बाद प्रेस सेंसरशीप में ढिलाई जरूर दे दी गयी थी। राजनीतिक बंदियों की रिहाई शुरू हो गयी थी।पर रिहाई की रफ्तार काफी धीमी थी। याद रहे कि 25 जून 1975 की रात में जब आपातकाल की घोषणा हुई तो उसके साथ देश भर के करीब सवा लाख राजनीतिक कार्यकर्ताओं-नेताओं तथा कुछ अन्य लोगों को किसी सुनवाई के बिना जेलों में ठूंस दिया गया था।कुछ पत्रकार भी बंदी बना लिए गए थे।

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