साल भर में 16 दिन पूर्वजों के लिए भी समर्पित हैं। इन्हें पितृपक्ष कहते हैं। पितृ पक्ष में यमराज पूर्वजों की आत्मा को मुक्त कर देते हैं। ताकि वह अपने परिवार से तर्पण, पिंडदान, ग्रहण कर सकें। इस साल पितृ पक्ष 17 सितंबर से 02 अक्टूबर तक रहेंगे। हिंदू शास्त्र के मुताबिक इस दौरान कोई भी शुभ कार्य करने की मनाही होती है। सिर्फ पितरों का श्राद्ध किया जाता है। सनातन धर्म के लोगों के लिए पितृ पक्ष की पूजा यानी श्राद्ध का विशेष महत्व है। श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है। जिसका अर्थ है पितरों के प्रति श्रद्धा प्रकट करना। शास्त्रों के अनुसार, समय-समय पर श्राद्ध करने से वंश आगे बढ़ता है।
मान्यता है कि श्राद्ध की पूजा सिर्फ पुरुषों को ही करनी चाहिए। महिलाओं को श्राद्ध की पूजा से दूर रखा जाता है। लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों में महिलाएं श्राद्ध पूजा कर सकती है। आइये जानते हैं किस स्थिति में महिलाएं श्राद्ध पूजा कर सकती हैं?
पुत्र के न होने पर कौन कर सकते हैं श्राद्ध
पंडित भले राम शर्मा भारद्वाज का कहना है कि अगर घर पर कोई पुत्र नहीं हैं। ऐसी स्थिति में पौत्र, प्रपौत्र, भतीजा, श्राद्ध कर सकता है। इसके अलावा कुंवारी लड़कियां, विवाहित महिलाएं भी घर श्राद्ध कर सकती हैं। वहीं पिंडदान गया में करना होता है। वहां भी कुंवारी लड़कियां, विवाहित महिलाएं पिंडदान कर सकती हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि सीता जी ने भी दशरथ का श्राद्ध और पिंडदान गया में किया था। वहीं अगर बेटा नहीं है तो पत्नी अपने पति का श्राद्ध कर सकती हैं। इसके अलावा कुल की विधवा स्त्री भी पितरों की शांति के लिए श्राद्ध कर सकती है।
‘पिंड’ शब्द का अर्थ है किसी वस्तु का गोलाकार रूप है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड ही कहते हैं। पिण्ड चावल, जौ के आटे, काले तिल और घी से बना गोल आकार का होता है, जिसका दान किया जाता है। इसे ही पिंडदान कहते हैं।
पितरों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण, पिंडदान और धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। इससे उनकी आत्मा तृप्त होती है और आर्शीवाद देते हैं। ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। उन्हें दान-दक्षिणा देकर पितरों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है।