Lok Sabha Elections 2024: क्या इस बार चुनावी हवा का रुख अपने पक्ष में कर पाएंगे अखिलेश यादव, आखिर क्यों बेचैन और बेकरार है समाजवादी पार्टी?
Lok Sabha Elections 2024: विडंबना ही है की हर चुनाव में उनके मुद्दे अलग-अलग रहे। मुद्दों को पकड़ना और छोड़ना उनके स्वभाव में है। इस बार उन्होंने PDA को अपना ब्रह्मास्त्र बताया है। पीडीए यानी पिछड़ा दलित और अल्पसंख्यक। इसी मतदाता को एकजुट कर वह चुनावी वैतरणी पार कर लेना चाहते हैं, लेकिन जमीनी हालात ऐसे नहीं हैं कि यह तीनों एकजुट होकर उनके साथ आ सकें
Lok Sabha Elections 2024: क्या 2024 का लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी और उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव को कोई शुभ सूचना देगा
Lok Sabha Elections 2024:समाजवादी पार्टी (SP) बेचैन भी है, बेकरार भी और अकुलाहट भी। बेचैनी इस लिए क्योंकि चुनावी सफलता के नजरिए से पिछले 10 साल से सूखा पड़ा है और जीत कैसे हाथ लगे, इसे लेकर बेचैनी भी है और उससे किसी भी तरह निकलने की अकुलाहट भी। लेकिन 2014 से अब तक समाजवादी पार्टी का हर दांव उल्टा पड़ता रहा है। क्या 2024 का लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी और उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) को कोई शुभ सूचना देगा। सपा के नेता दावा करते हैं कि इस बार सपा की जय जयकार हो जाएगी। सपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह किसी तरह हार के सिलसिला को तोड़े, जो 2014 से उसे अनवरत मिल रही है।
यही नहीं अखिलेश यादव को साबित करना होगा कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी न सिर्फ लड़ सकते हैं बल्कि विजय पताका भी फहरा सकते हैं। लेकिन यह डगर आसान नहीं है। यह भी विडंबना ही है की अखिलेश यादव को अब तक, जो साथी मिले वे या तो उनके प्रति वफादार नहीं रहे या अखिलेश यादव ही उनके प्रति वफादारी साबित नहीं कर सके।
आने वाले खतरे को समझ रहे हैं अखिलेश यादव
इसमें कोई दो राय नहीं है कि वह अपने सहयोगियों के प्रति काफी उदार रहे हैं और चुनाव में उनको पर्याप्त संख्या में सीट भी देते हैं, लेकिन तीर निशाने में लगता ही नहीं है। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव की लड़ाई अखिलेश के लिए काफी महत्वपूर्ण है। अगर वह यह लड़ाई जीतते हैं, तो देश की राजनीति में उनकी हैसियत बढ़ेगी और अगर हारते हैं, तो दूसरे विपक्षी दलों को यह मौका मिल जाएगा की वह सपा की जगह अपने को बीजेपी का विकल्प बताएं। अखिलेश यादव इस खतरे को समझ रहे हैं और इसीलिए वह कांग्रेस को भी अपने साथ रखना चाहते हैं और वह भी उन परिस्थितियों में जब कांग्रेस और उनके बीच की खाई बहुत बड़ी है।
यह भी विडंबना ही है की हर चुनाव में उनके मुद्दे अलग-अलग रहे। मुद्दों को पकड़ना और छोड़ना उनके स्वभाव में है। इस बार उन्होंने PDA को अपना ब्रह्मास्त्र बताया है। पीडीए यानी पिछड़ा दलित और अल्पसंख्यक। इसी मतदाता को एकजुट कर वह चुनावी वैतरणी पार कर लेना चाहते हैं, लेकिन जमीनी हालात ऐसे नहीं हैं कि यह तीनों एकजुट होकर उनके साथ आ सके। लेकिन यह चुनाव है और उसमें भविष्यवाणी करना ठीक नहीं है।
2024 का लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी यह भरोसा लेकर चल रही है कि इस बार चुनाव उसके पक्ष में जाएगा और सपा नेता यह दावा भी करते हैं की अब लोगों का रुझान अखिलेश यादव की तरफ बढ़ा है। लेकिन इस तरह के दावे तो सपा पहले भी करती रही है और इसमें कुछ नया नहीं है।
सवाल यह है कि वह कौन सा वोट है, जो इस बार समाजवादी पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले ज्यादा मिल जाएगा, जहां तक अल्पसंख्यक मतदाताओं का सवाल है, वह लगातार समाजवादी पार्टी के साथ ही एकजुट होकर जाता रहा है।
BJP और BSP के वोट बैंक में लगानी होगी सेंध
साल 2022 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाता पूरी मजबूती से एक होकर और प्रतिशत के आधार पर कहीं ज्यादा संख्या में समाजवादी पार्टी गठबंधन के पक्ष में गया। इसका असर भी दिखा और सपा 49 सीटों से 111 सीट तक पहुंच गई। लेकिन यह मंजिल से बहुत दूर था।
दलित मतदाता एक हिस्सा अभी भी मायावती से जुड़ा है या नरेंद्र मोदी से। पिछड़े वर्ग में भी बीजेपी की गहरी पकड़ है। इसलिए अगर समाजवादी पार्टी गठबंधन को 2024 के लोकसभा चुनाव में बड़ी सफलता हासिल करनी है, तो उसे बीजेपी और बसपा के वोट बैंक में सेंध लगानी होगी और यह आसान नहीं है।
असल में 2012 में जब मुलायम सिंह यादव अपने बेटे अखिलेश यादव को सत्ता सौंप रहे थे ,तो यह अनुमान लगाए गए थे की उत्तर प्रदेश को एक युवा नेतृत्व मिल रहा है और यह नेतृत्व लंबी पारी खेल सकता है। लेकिन सिर्फ दो साल बाद ही, जब 2014 में लोकसभा चुनाव हुए, तो समाजवादी पार्टी को सिर्फ पांच सीट मिली, उसमे भी चार मुलायम परिवार को ही।
समाजवादी पार्टी के लिए यह गहरा धक्का था और यहीं से अखिलेश यादव ने वे तमाम प्रयास करने शुरू किया, जो उन्हें 2017 के विधानसभा चुनाव में सफलता दिला सके। तब भी यह आवाज उठी थी कि उत्तर प्रदेश की सत्ता एक बार फिर मुलायम सिंह यादव संभाले। लेकिन मुलायम सिंह यादव ने इनकार कर दिया।
अंदरूनी कलह से भी उभर गई सपा
आखिर वह दौर भी आया जब समाजवादी पार्टी में जो आंतरिक कलह दिखी वैसी समाजवादी पार्टी में कभी देखी नहीं गई थी। अखिलेश यादव को यह लगता था कि पार्टी में उन्हें ही किनारे किया जा रहा है। नाराज अखिलेश ने अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव को किनारे लगा दिया। मुलायम सिंह यादव ने इस पर कड़ा रुख अपनाया लेकिन उनकी बात अनसुनी कर दी गई।
वो दिन भी आया, जब लखनऊ में एक अधिवेशन में मुलायम सिंह यादव को ही उनके अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और अखिलेश यादव खुद अध्यक्ष बन बैठे। सपा के लिए ये कठिन क्षण थे। समर्थकों को यह भरोसा था कि अखिलेश पार्टी का नेतृत्व मजबूती से कर लेंगे और उसे लगातार जीत की ओर ले जाएंगे। इस कलह और नाराजगी के बावजूद मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव को सलाह देते रहे लेकिन इसका कोई असर नहीं पड़ा।
साल 2017 के चुनाव में मुलायम सिंह यादव के न चाहने के बावजूद अखिलेश यादव ने कांग्रेस से समझौता कर लिया और उसे उसकी जमीनी ताकत से कहीं ज्यादा जाकर 103 विधानसभा सीट दे दी। सपा और कांग्रेस का गठबंधन मुंह के बल जा गिरा और चुनाव में सपा को 49 और कांग्रेस को सिर्फ 7 सीटों पर संतोष करना पड़ा। यह नतीजे सपा के लिए चिंता का सबब थे।
2019 के लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे थे और 2018 में चार उपचुनाव हुए, जिसमे लोकसभा की गोरखपुर फूलपुर और कैराना और नूरपुर विधानसभा के उपचुनाव में सपा को भारी सफलता मिली और सभी सीटों पर सपा ने कब्जा कर लिया। अखिलेश यादव को यह लगा की उत्तर प्रदेश की जनता उन्हें याद कर रही है और 2019 के लोकसभा चुनाव में वह बीजेपी को बुरी तरह हरा देंगे।
जब मायावती के साथ भुला दिए थे गिले शिकवे
सपा ने सारे गिले शिकवे भुला कर मायावती से उनकी शर्तों में समझौता कर लिया। 24 साल पुरानी दुश्मनी मित्रता में बदल गई और मायावती अखिलेश यादव की बुआ जी हो गईं। मैनपुरी की एक जनसभा में मुलायम के साथ मायावती भी मंच पर उपस्थित थीं। यह ऐतिहासिक घटना थी। इसके बावजूद इतना मजबूत गठबंधन जिसमें समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल शामिल था बुरी तरह पराजित हो गया। यह मोदी लहर का करिश्मा था और बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित भी यह आकलन नहीं कर पाए की मोदी लहर इतनी तेज है कि वह सामाजिक दृष्ट्री से इतना मजबूत गठबंधन को भी उखाड़ कर फेंक सकती है।
चुनाव परिणाम आने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती, जिन्हें लोकसभा की दस सीट मिली थीं, ने सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर धोखाधड़ी का आरोप जड़ दिया और गठबंधन को तोड़ने का एकतरफा फैसला किया। समाजवादी पार्टी को गठजोड़ के बावजूद सिर्फ पांच सीट मिली थी।
2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने राज्य के उन तमाम छोटे दलों से समझौता किया जो अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव रखते थे। उसमें ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी महान दल भी शामिल था। RLD का गठबंधन सपा से पहले से ही था। इसके बावजूद यह गठबंधन चुनाव हार गया।
अब 2024 नई चुनौती लेकर आया है। अखिलेश उत्तर प्रदेश में चक्रव्यूह की रचना कर रहे हैं और उनके साथ कांग्रेस भी है। लेकिन अखिलेश के लिए यह लड़ाई अभी भी कठिन है। वह लगातार चुनावी दौरा कर रहे हैं। अपने कई प्रत्याशियों के नाम घोषित कर चुके हैं। इसके बावजूद सपा के समर्थक भी सशंकित हैं और वे जानते हैं की हवाएं अभी भी बहुत पक्ष में नहीं है।