केंद्र सरकार एयर इंडिया की बिक्री के मामले में अब अंतिम चरण में पहुंच गई है। उम्मीद की जा रही है कि गृह मंत्री अमित शाह की अगुआई वाली समिति एयरलाइन के लिए टाटा संस की बोली स्वीकार कर लेगी और इसी हफ्ते इसे केंद्रीय मंत्रिमंडल से भी मंजूरी मिल जाएगी।
पिछले दो दशकों से भारत सरकार एयर इंडिया के निजीकरण की कोशिश कर रही थी। इस दौरान केंद्र में 5 बार सरकारें बदलीं। आइए जानते हैं कि घाटे में चल रही इस सरकारी एयरलाइन के निजीकरण का सफर कैसा रहा-
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प्राइवेट कंपनी से शुरू होकर सरकारी बनना और फिर निजीकरण की पहली कोशिश (1932-2000)
एयर इंडिया हमेशा से सरकारी कंपनी नहीं थी। इसे 1932 में जेआरडी टाटा ने "टाटा एयरलाइंस" के नाम से शुरू किया था। शुरु में यह कराची से मद्रास तक वीकली फ्लाइट सर्विस मुहैया कराती थी, जो अहमदाबाद और बॉम्बे होते हुए जाती थी।
इस एयरलाइन ने अपने पहले साल में 155 यात्रियों और 10.71 टन चिठ्ठियों को लेकर 2,60,000 किलोमीटर की उड़ान भरी। इस दौरान इसने 60,000 रुपये का मुनाफा कमाया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह एयरलाइन एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी में बदल गई और इसका नाम एयर इंडिया हो गया।
इसके ठीक बाद 1948 में भारत सरकार ने इसमें 49 पर्सेंट हिस्सेदारी खरीद ली। फिर 1953 में सरकार एयर कॉरपोरेशन एक्ट पासकर एयरलाइन में जेआरडी टाटा से मेजॉरिटी हिस्सेदारी खरीद ली।
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भारत सरकार ने एयरलाइन का नाम बदलकर एयर इंडिया इंटरनेशनल कर दिया और इसकी घरेली उड़ान सेवा को रिस्ट्रक्चरिंग के तहत इंडियन एयरलाइंस को ट्रांसफर कर दिया गया।
अगले 40 सालों तक एयर इंडिया की गिनती केंद्र सरकार के रत्नों में होती रही और डोमेस्टिक एयरलाइन के मार्केट शेयर का अधिकतर हिस्सा इसके पास बना रहा।
हालांकि 1994 में सरकार ने एयर कॉरपोरेशन एक्ट 1953 को निरस्त कर दिया और एविएशन सेक्टर में प्राइवेट कंपनियों को भी भाग लेने की इजाजत दे दी। 1994-95 के अंत तक 6 प्राइवेट एयरलाइन ने इस सेक्टर में एंट्री की। इनमें जेट एयरवेज, एयर सहारा, मोदीलुफ्त, दमानिया एयरवेज, NEPC एयरलाइन और ईस्ट-वेस्ट एयरलाइंस शामिल हैं।
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एयर इंडिया ने इस दौरान प्रीमियम सेवाएं देना जारी और देश के इंटरनेशन ट्रैफिक के अधिकांश हिस्से पर उसका कंट्रोल बना रहा है। हालांकि घरेलू मार्केट में उसने जेट एयरवेज और सहारा एयरलाइंस के हाथों मार्केट शेयर खोना शुरू कर दिया। यह दोनों एयरलाइंस लक्जरी सेवाएं नहीं मुहैया करा रही थीं, लेकिन वे किफायती रेट पर घरेलू उड़ान ऑफर कर रही थीं, जो लोगों को आकर्षित कर रहा था।
2000-01 में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली एनडीए सरकार ने फंड जुटाने की कोशिशों के तहत एयर इंडिया में अल्पांश हिस्सेदारी (40 प्रतिशत) बेचने की कोशिश की। 2000-01 में सरकार ने 27 सरकारी कंपनियों को निजीकरण के लिए आगे किया था, लेकिन इनमें से कोई भी कंपनी उस साल बिक नहीं पाई थी।
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एयर इंडिया की गिनती उस समय वैल्यूएबल एसेट में थी। हालांकि इसकी वैल्यूएशन और जेआरडी टाटा को एयरलाइन के चेयरमैन पद से हटाने को इस नजरिए से देखा गया कि सरकार एयर इंडिया के कामकाज में प्राइवेट इनवेस्टर के किसी भी तरह के हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करेगी।
सिंगापुर एयरलाइंस, उस समय टाटा ग्रुप के साथ मिलकर सरकार की 40 पर्सेंट हिस्सेदारी खरीदने के लिए तैयार थी। लेकिन बाद में सिंगापुर एयरलाइंस ने अपने कदम पीछे खींचे लिए, जिससे सरकार की एयर इंडिया के निजीकरण की योजना फेल हो गई।
निजीकरण को लेकर मिली नाकामी के बावजूद एयर इंडिया का भारतीय एविएशन इंडस्ट्री की सबसे बड़ी एयरलाइन के तौर पर दबदबा बना रहा।
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बजट एयरलाइंस का आगमन, मर्जर और निजीकरण की दूसरी कोशिश (2001-2017)
2003 में, डेक्कन एयरलाइंस के एंट्री के बाद से भारत में कम लागत वाली या दूसरे शब्दों में बजट एयरलाइंस के आगमन की शुरूआत हुई। 2006 तक, किंगफिशर एयरलाइंस, स्पाइसजेट, पैरामाउंट एयरलाइंस, गोएयर और इंडिगो ने अपनी उड़ानें शुरू कर दीं। इसी के साथ एयर इंडिया की घरेलू बाजार के बजाय अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर ध्यान देने की रणनीति का उल्टा असर होना शुरू हो गया और एयरलाइन ने अपना अधिकतर घरेलू मार्केट शेयर इन एयरलाइन के हाथों खो दिया।
एयर इंडिया अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी अपना मार्केट शेयर खो रही थी क्योंकि घरेलू प्राइवेट ऑपरेटर, अंतरराष्ट्रीय एयरलाइनों के साथ हाथ मिलाकर कम कीमत पर कनेक्टिंग इंटरनेशनल फ्लाइट्स ऑफर कर रहे थे।
Eithad, Emirates, और Gulf Air जैसी मिडिल ईस्ट देशों की एयरलाइंस ने भारत की प्राइवेट डोमेस्टिक एयरलाइंस के साथ हाथ मिलाना शुरू कर दिया और दुबई और सऊदी अरब जैसी जगहों के लिए काफी कम कीमत पर फ्लाइट ऑफर करनी शुरू कर दी।
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2005-06 में एयर इंडिया को 16.29 करोड़ का मामूली मुनाफा हुआ था। वहीं इंडियन एयरलाइंस 49.50 करोड़ रुपये के मुनाफे में रही थी।
दोनों एयरलाइंस पर कुल 5,000 करोड़ रुपये का कर्ज था। वहीं किंगफिशर, स्पाइसजेट और इंडिगो जैसी प्राइवेट एयरलाइंस अपने फ्लीट के विस्तार पर नए एयरक्राफ्ट खरीदने पर काफी पैसा खर्च कर रही थीं।
एयर इंडिया इसलिए भी डोमेस्टिक और इंटरनेशनल एयरलाइंस से पिछड़ने लगी क्योंकि वे छोटे साइज के विमान का इस्तेमाल करते थे, जो कम फ्यूल लेती थीं, तेज उड़ान भर सकती थी और उन्हें सर्विसिंग की भी एयरइंडिया के पुराने हो चुके फ्लीट के मुकाबले कम जरूरत थी।
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सिंगापुर, दुबई, रियाद, दोहा, मलेशिया जैसे कम दूरी वाले लोकप्रिय स्टॉप-ओवर डेस्टिनेशन के उभरने से भी एयर इंडिया को नुकसान पहुंचा क्योंकि इसने अपनी विशेषज्ञता लंबी दूरी वाले डेस्टिनेशन में विकसित कर रखी थी।
2007, में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार ने दोनों एयरलाइंस को मर्ज करने और करीब 50,000 करोड़ रुपये की लागत से नए प्लेन खरीदने की योजना को मंजूरी दी।
एयरलाइन ने इल प्लेन के लिए 2010 तक पेमेंट देना जारी रखा, जबकि सीबीआई की 2011 की एक रिपोर्ट के मुताबिक इनमें से कई की उसे जरूरत नहीं थी।
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एयरलाइन ने इन विमानों के खरीद के लिए भारी कर्ज लिया और दूसरी तरफ इसके कर्मचारियों ने वेतन में असमानता को लेकर प्रदर्शन शुरू कर दिया। एयर इंडिया इस अराजकता से फिर कभी उबर नहीं पाई।
इतना ही नहीं, एयरलाइन ने कर्मचारियों के नए वेतन समझौते पर हामी भर दी और इस चक्कर में उस पर और कर्ज बढ़ गया। 2011 में एक ऐसा समय आया, जब एयरलाइन अपने कर्मचारियों को समय से सैलरी का भुगतान करने में असमर्थ थी। तब यूपीए सरकार ने अगले एक दशक में एयरलाइन में 30,000 करोड़ रुपये की इक्विटी फंडिंग डालने का ऐलान किया।
2017 तक एयरइंडिया घरेलू और इंटरनेशनल बाजार में अपना मार्केट शेयर खोती रही। साथ ही 111 एयरक्राफ्ट को खरीदने का वित्तीय बोझ और वर्किंग कैपिटल लोन से उसका कर्ज 10 सालों में 5,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 50,000 करोड़ रुपये पर पहुंच गया।
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जून 2017 में सरकार ने एयरइंडिया के निजीकरण को मंजूरी दी और मार्च 2018 में इसने एयर इंडिया की 76 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने के लिए एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट (EOI) मंगाएं। इसमें एयर इंडिया के साथ एयर इंडिया एक्सप्रेस की हिस्सेदारी सहित एयर इंडिया SATS एयरपोर्ट सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी भी शामिल थी। एयर इंडिया SATS एयरपोर्ट सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड, एयर इंडिया और सिंगापुर एयरपोर्ट टर्मिनल सर्विसेज का ज्वाइंट वेंचर है।
एयर इंडिया की निजीकरण की दूसरी कोशिश के तहत, सरकार ने एयरलाइन के नए मालिक को इसका 33,392 करोड़ का कर्ज लेने और मई के मध्य तक बोली जमा करने का निर्देश दिया। सरकार की मंशा 2018 के अंत तक एयरइंडिया का निजीकरण पूरा करने की थी। हालांकि किसी भी प्राइवेट कंपनी ने घाटे में चल रही इस सरकारी एयरलाइन को खरीदने में दिलचस्पी नहीं दिखाई।
निजीकरण की तीसरी कोशिश (2019-2021)
एयरलाइन को बेचने की दो कोशिशों में विफल रहने के बाद, सरकार ने जनवरी 2020 में एयरलाइन अपनी पूरी 100 पर्सेंट हिस्सेदारी बेचने का फैसला किया और एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट मंगाए।
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साथ ही सरकार ने इस बार अधिक से अधिक निवेशकों को आकर्षित करने के लिए एयर इंडिया पर लदे 30,000 करोड़ रुपये के कर्ज को एक स्पेशल परपज व्हीकल (SPV) के जरिए कम कर दिया।
हालांकि कोरोना महामारी के आने से इसकी निजीकरण की प्रक्रिया तब रुक गई। सितंबर 2021 में सरकार को एयर इंडिया के लिए दो बोलियां मिलीं। पहली बोली टाटा ग्रुप ने लगाई जबकि दूसरी बोली स्पाइसजेट के फाउंडर अजय सिंह ने अपनी व्यकिगत क्षमता के आधार पर लगाई है।
एयरलाइन की बिक्री से जुड़ी अंतिम मंजूरी अभी मिलना बाकी है। हालांकि यह कहा जा सकता है कि एयर इंडिया अभी एक आकर्षक एसेट है। इसके पास लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर जमीन और पार्किंग स्लॉट, करीब 120 प्लेन का फ्लीट सहित कई मूल्यवान संपत्तियां है। इसलिए सरकार ने एयरइंडिया की बिक्री के लिए 15,000 करोड़ रुपये का रिजर्व प्राइस तय किया है।
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